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प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक | Prernadayak Sanskrit Shlok

Prernadayak Sanskrit Shlok: प्रिय पाठकों आज की इस पोस्ट में हम आपके साथ प्रेरणादायक पर संस्कृत श्लोक शेयर करने वाले है अगर आप भी प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पढ़ना पसंद करते हैं तो आज का यह पोस्ट आपके लिए है क्योंकि आज की इस पोस्ट में हम आपके साथ 10 से भी ज्यादा जीवन पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित शेयर किऐ है अगर आप Prernadayak Sanskrit Shlok पढ़ना पसंद करते हैं तो इस पोस्ट को लास्ट तक जरूर पढ़ें 

Prernadayak Sanskrit Shlok

दोस्तों आपके जानकारी के लिए बता दूँ कि संस्कृत में ऐसे बहुत सारे श्लोक है जिसे पढ़ने के बाद हम लोगो को बहुत कुछ सीखने को मिलता है इस वेबसाइट पर आपको बहुत सारे संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पढ़ने को मिल जाऐगा तो आइये सबसे पहले प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक (prernadayak sanskrit shlok) पढ़ते हैं



प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक अर्थ सहित - (Prernadayak Sanskrit Shlok) 


दोस्तों अगर आप प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक short या प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक one line की तलाश कर रहे हैं तो नीचे हमने आपको सबसे अच्छा संस्कृत श्लोक दिऐ है 


( 1 )  अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥


Prernadayak Sanskrit Shlok

अर्थ: छोटे मनवालों की गिनती अपना-पराया कर लेती है, परन्तु विशाल हृदयवाले लोगों के लिए पूरी दुनिया एक परिवार है॥


यह श्लोक मनुष्यों को उदारता और सामरस्य की प्रेरणा देता है। यह दर्शाता है कि सभी मनुष्य एक ही परिवार के सदस्य हैं और एक-दूसरे के साथ बंधुत्व और प्रेम के भाव को धारण करना चाहिए।



( 2 )  सर्वेभ्यः सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥


अर्थ: सब सुखी हों, सब रोगमुक्त हों।

सब भले कार्यों को देखें, किसी को दुःख न पड़े॥


यह श्लोक सभी के सुख और शांति की कामना करता है। यह दर्शाता है कि हम सभी के सुख, स्वास्थ्य और कल्याण की प्रार्थना करें और दूसरों के भले कार्यों का सम्मान करें। हमें किसी के दुःख की कामना नहीं करनी चाहिए, बल्कि हमें सभी को सुखी और शांतिपूर्ण रहने की आशा होनी चाहिए।



( 3 )  तमसो मा ज्योतिर्गमय।

असतो मा सद्गमय।

मृत्योर्मा अमृतं गमय॥


अर्थ: मुझे अज्ञानता से प्रकाश की ओर ले चलो।

मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।

मुझे मृत्यु से अमृतत्व की ओर ले चलो॥


यह श्लोक हमें ज्ञान, सत्य और अमृतत्व की ओर प्रेरित करता है। यह हमें अज्ञानता से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर और मृत्यु से अमृतत्व की ओर आग्रह करता है। यह हमें अन्धकार से उज्ज्वलता, असत्य से सत्य और मृत्यु से अमरत्व की ओर प्रवृत्ति करने के लिए प्रेरित करता है।


( 4 )  आपात्सु मित्रं विपत्सु दुःखेषु सुखं च मानवः।

आत्मनं च समं पश्यन् सर्वत्र समदर्शिनः॥


अर्थ: मनुष्य को सभी संकटों में मित्रता और सुख मिले।

वह स्वयं को और सभी में समान देखें, सर्वत्र समदर्शी हों॥


यह श्लोक हमें उपद्रवों और कठिनाइयों के समय में मित्रता और सहायता का महत्व बताता है। हमें सभी में अपने आत्मा को और सभी में समानता को देखना चाहिए और सभी जीवों के प्रति समदर्शी होना चाहिए। यह हमें सामरिकता और सामरस्य की महत्ता को समझाता है और सभी के साथ सहयोग करने का प्रेरणा देता है।


( 5 )  अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव च।

अहिंसा परमं धाम, सर्वभूतानाम् हितं तथा॥

Prernadayak Sanskrit Shlok

अर्थ: अहिंसा सबसे उच्च धर्म है, धर्म की हिंसा नहीं होती।

अहिंसा परम आश्रय है, सभी प्राणियों के हित में भी है॥


यह श्लोक हमें अहिंसा के महत्व को समझाता है। अहिंसा सर्वोच्च धर्म मानी जाती है, जबकि धर्म की हिंसा कोई धर्म नहीं होती है। अहिंसा परम आश्रय है और सभी प्राणियों के हित में होती है। यह हमें अनियंत्रित हिंसा से दूर रहने का संकेत देता है और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति दया और करुणा का विकास करने की प्रेरणा देता है।


( 6 )  यथा राजा तथा प्रजा, यथा प्रजा तथा राजा।

यथा लोको तथा चित्तं, यथा चित्तं तथा लोकः॥


अर्थ: जैसा राजा, वैसी ही प्रजा; जैसी प्रजा, वैसा ही राजा।

जैसा लोक, वैसा ही चित्त; जैसा चित्त, वैसा ही लोक॥


यह श्लोक हमें लोक और मन के सम्बन्ध की महत्ता बताता है। जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा उत्पन्न होती है, और जैसी प्रजा होती है, वैसा ही राजा उभरता है। इसी तरह, जैसा समाज होता है, वैसा ही मन होता है, और जैसा मन होता है, वैसा ही समाज बनता है। यह हमें लोक-मन संबंध के प्रभाव को समझाता है और हमें यह समझने के लिए प्रेरित करता है कि यदि हम समाज को सुधारना चाहते हैं, तो हमें अपने मन को परिवर्तित करना चाहिए।


( 7 )  सर्वेभ्यः सुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥


अर्थ: सभी सुखी हों, सभी स्वस्थ रहें।

सभी भले कार्यों को देखें, किसी को दुःख न पड़े॥


यह श्लोक हमें सभी के सुख, स्वास्थ्य और कल्याण की कामना करता है। यह दर्शाता है कि हमें सभी के लिए सुख, स्वास्थ्य और शुभ कार्यों की प्राथमिकता रखनी चाहिए और किसी को दुःख नहीं होना चाहिए। हमें सभी के समृद्धि और सुख में सहभागी होने का आदर्श रखना चाहिए और किसी को भी दुःख नहीं पहुंचाना चाहिए। यह हमें सामरिकता और सहभागिता की प्रेरणा देता है और अपने साथी मनुष्यों के प्रति दया और समर्पण की भावना को स्थापित करता है।


( 8 )  स्वाध्यायान्मा प्रमदः प्रयोजनं च विपश्चितः।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन॥


अर्थ: ध्यानपूर्वक अध्ययन में मत पड़ो और विचारशील व्यक्ति का प्रयोजन नष्ट न करो।

तेरे हाथ में केवल कर्म करने का अधिकार है, फलों में कभी नहीं॥


यह श्लोक हमें अध्ययन और कर्म के सम्बन्ध में समझाता है। हमें ध्यानपूर्वक अध्ययन करना चाहिए और विचारशील व्यक्ति का प्रयोजन नष्ट नहीं करना चाहिए। हमारे पास कर्म करने का अधिकार होता है, लेकिन हमें कभी भी फलों में आसक्त नहीं होना चाहिए। यह हमें समर्पणशीलता, स्वावलंबन और निष्काम कर्म के महत्व को समझाता है। हमें अपने कर्तव्यों को सच्ची समर्पणता के साथ निभाना चाहिए और फलों की चिंता से मुक्त रहना चाहिए।


( 9 )  योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥


अर्थ: हे धनञ्जय! योग में स्थित होकर कर्म करो और संगच्छद्वं कर्माणि त्यजो।

सिद्धि और असिद्धि को समान जानकर समत्वमानपन करो, वही योग कहलाता है॥


यह श्लोक हमें योग और कर्म के संबंध में समझाता है। हमें योग में स्थित होकर कर्म करना चाहिए और कर्मों में आसक्ति को त्यागना चाहिए। हमें सिद्धि और असिद्धि को समान रूप से स्वीकार करते हुए समत्वमानपन करना चाहिए, यानी समभाव रखना चाहिए। इससे हमें समत्व और स्थिरता की प्राप्ति होती है और हम योगी कहलाते हैं। यह हमें अवस्थानिक और अस्थायी फलों से मुक्त होकर निःस्वार्थ कर्म करने की महत्ता को समझाता है।


( 10 )  यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥


अर्थ: हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उदय होता है, तब-तब मैं अपने आप को जन्म देता हूँ।


साधुओं की रक्षा के लिए और पाप करने वालों के विनाश के लिए, धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में अवतरित होता हूँ॥


यह श्लोक भगवद्गीता में भगवान कृष्ण के वचनों का हिस्सा है। यह श्लोक हमें धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए भगवान के अवतार के विषय में बताता है। जब भी धर्म कमजोर होता है और अधर्म उभरता है, तब भगवान अपने आप को जन्म देते हैं ताकि साधुओं की रक्षा करें और पापी लोगों का नाश करें। यह हमें युग-युग में धर्म की संस्थापना के लिए भगवान के अवतार के महत्व को समझाता है और हमें धर्म की पुनरुत



निष्कर्ष :


दोस्तों आज की इस पोस्ट में आपने जाना प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक (Prernadayak Sanskrit Shlok) मै उम्मीद करता हूँ कि आपको प्रेरणादायक संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पसंद आया होगा अगर आपको यह पोस्ट पसंद आया तो इसे अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर शेयर जरूर करें अगर इससे संबंधित आपके मन में कोई सवाल है तो आप कमेंट जरूर करें 


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