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कर्म पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित | Karm Par Sanskrit Shlok

Karm Par Sanskrit Shlok : प्रिय पाठकों आज की इस पोस्ट में हम आपके साथ कर्म पर संस्कृत श्लोक शेयर करने वाले है अगर आप भी कर्म पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पढ़ना पसंद करते हैं तो आज का यह पोस्ट आपके लिए है क्योंकि आज की इस पोस्ट में हम आपके साथ 10 से भी ज्यादा जीवन पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित शेयर किऐ है अगर आप Karm Par Sanskrit Shlok पढ़ना पसंद करते हैं तो इस पोस्ट को लास्ट तक जरूर पढ़ें 

Karm Par Sanskrit Shlok

दोस्तों आपके जानकारी के लिए बता दूँ कि संस्कृत में ऐसे बहुत सारे श्लोक है जिसे पढ़ने के बाद हम लोगो को बहुत कुछ सीखने को मिलता है इस वेबसाइट पर आपको बहुत सारे संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पढ़ने को मिल जाऐगा तो आइये सबसे पहले कर्म पर संस्कृत श्लोक (Karm Par Sanskrit Shlok) पढ़ते हैं


कर्म पर संस्कृत श्लोक (Karm Par Sanskrit Shlok) 


दोस्तों अगर आप कर्म पर संस्कृत श्लोक one line या karm par sanskrit shlok की तलाश में है तो नीचे आपको बहुत सारे संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पढ़ने को मिल जाऐगा 



( 1 )  यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥

Karm Par Sanskrit Shlok

अर्थ:

हे कुंतीपुत्र! जो कुछ तू करता है, जो तू खाता है, जो यज्ञ करता है, जो तू दान करता है और जो तपस्या करता है, सब कुछ मेरे अर्पण कर॥


यह श्लोक भगवद्गीता में उल्लेखित है और इसका अर्थ है कि हमें सभी कर्मों को ईश्वर के अर्पण के रूप में करना चाहिए।



( 2 )  सकर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥


अर्थ:

तू कर्म में ही अधिकार रखता है, परन्तु कभी भी फलों में मोह न कर। मैं कर्मफल के हेतु तेरा संग नहीं करूँगा॥


इस श्लोक का अर्थ है कि हमें कर्म में लगे रहना चाहिए लेकिन हमें कर्मफल में मोहित नहीं होना चाहिए। हमें कर्म करने का हक तो है, लेकिन हमें कर्मफल के लिए आसक्त नहीं होना चाहिए।



( 3 ) नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥


अर्थ:

तू निश्चित रूप से कर्म कर, क्योंकि कर्म करना अकर्म से श्रेष्ठ है। तेरे शरीर की यात्रा भी अकर्म करते हुए पूर्ण नहीं होगी॥


इस श्लोक में बताया गया है कि हमें निश्चित रूप से कर्म करना चाहिए, क्योंकि कर्म करना अकर्म (निष्क्रियता) से श्रेष्ठ है। हमारे शरीर की यात्रा भी बिना कर्म किए पूर्ण नहीं होगी। यह श्लोक गीता में उल्लेखित है और हमें यह याद दिलाता है कि कर्म करना एक महत्वपूर्ण और आवश्यक धार्मिक कर्तव्य है।


( 4 )  कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥


अर्थ:

तेरा अधिकार सिर्फ़ कर्म में है, फलों में कभी भी मोह न कर। मैं कर्मफल के लिए तेरा संग नहीं करूंगा॥


यह श्लोक भगवद्गीता के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। यह श्लोक हमें संकल्प और भावना से कर्म करने की महत्ता सिखाता है। हमें अपने कर्मों के फलों में मोहित नहीं होना चाहिए, बल्कि हमें केवल अपने कर्मों में लगना चाहिए। यदि हम अपने कर्मों को समर्पितता और आस्था के साथ करते हैं, तो ईश्वर हमारे कर्मों के फल की देखभाल करेंगे। हमें कर्म करना है और कर्मफल की चिंता नहीं करनी चाहिए।


( 5 )  स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।

अव्ययं धर्म्युपदेशं हि विद्याऽऽऽत्मन्येव विनियोजयेत्॥


अर्थ:

अपने स्वधर्म में निधन (मरण) होना श्रेष्ठ है, परधर्म (अन्य के धर्म) भयकर होता है। धर्म के अव्यय (अचल) उपदेश को तो अपनी अध्यात्मिकता में ही नियोजित करें॥


यह श्लोक भगवद्गीता में उल्लेखित है और इसमें धर्म के महत्व को विशेष रूप से बताया गया है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपने स्वधर्म में सदैव स्थिर रहना चाहिए, क्योंकि इसमें हमारा श्रेय (उत्कृष्टता) स्थित होता है। परधर्म (दूसरे के धर्म) करने में भय होता है, और हमें स्वधर्म का पालन करते हुए अपनी अध्यात्मिकता में ही आचरण करना चाहिए।


( 6 )  योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥


अर्थ:

धनञ्जय (अर्जुन)! योग में स्थिर रहकर कर्म कर, संग को त्यागकर। सिद्धि और असिद्धि में समान बनकर समत्व (समता) को योग कहते हैं॥


इस श्लोक में बताया गया है कि हमें योग में स्थिर रहकर कर्म करना चाहिए। हमें कर्म करते समय संग को त्यागना चाहिए। सिद्धि और असिद्धि के मामले में समान बनकर समत्व (समता) को योग कहा जाता है। यह श्लोक भगवद्गीता में आत्मग्यान और योग के मार्ग को समझाने के लिए प्रस्तुत किया गया है।


( 7 )  कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥


( 8 )  नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥


( 9 )  स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।

अव्ययं धर्म्युपदेशं हि विद्याऽऽऽत्मन्येव विनियोजयेत्॥


( 10 )  योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥


ये श्लोक संस्कृत भाषा में हैं और ये भगवद्गीता के अध्याय 2 के भाग हैं। इन श्लोकों में कर्म की महत्ता, कर्मफल के प्रति आसक्ति से बचने का मार्ग, स्वधर्म की महत्ता, समता के महत्त्व और योग के सिद्धांतों का वर्णन किया गया है। ये श्लोक हमें सही और सत्य कर्म करने की दिशा में प्रेरित करते हैं और हमें अध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन की मार्गदर्शन करते हैं।


( 11 )  यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥


( 12 ) परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥


( 13 )  श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥


( 14 ) अर्जुन उवाच: कर्मणं योगं आरभ्य संकरं च जयसि केशव। अता वा परिहर्येऽस्ति तथा कर्मेऽवशिष्यते॥


ये श्लोक भगवद्गीता के अध्याय 4, 7 और 9 से लिए गए हैं। इन श्लोकों में संसार के सृजन के लिए धर्म की स्थापना की जरूरत, स्वधर्म की महिमा, कर्मयोग का महत्त्व और भगवान् कृष्ण द्वारा धर्म की रक्षा के लिए उठाए जाने वाले साधुओं का संरक्षण करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। ये श्लोक हमें यह बताते हैं कि हमें सही कर्म करने का निर्णय लेना चाहिए और धर्म के प्रति समर्पित रहना चाहिए।


निष्कर्ष :


दोस्तों आज की इस पोस्ट में आपने जाना कर्म पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित (Karm Par Sanskrit Shlok) मै उम्मीद करता हूँ कि आपको कर्म संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पसंद आया होगा अगर आपको यह पोस्ट पसंद आया तो इसे अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर शेयर जरूर करें अगर इससे संबंधित आपके मन में कोई सवाल है तो आप कमेंट जरूर करें 


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