Sanskrit Shlok On Life : प्रिय पाठकों आज की इस पोस्ट में हम आपके साथ जीवन पर संस्कृत श्लोक शेयर करने वाले है अगर आप भी jivan par sanskrit shlok पढ़ना पसंद करते हैं तो आज का यह पोस्ट आपके लिए है क्योंकि आज की इस पोस्ट में हम आपके साथ 10 से भी ज्यादा जीवन पर संस्कृत श्लोक अर्थ सहित शेयर किऐ है अगर आप sanskrit shlok on life पढ़ना पसंद करते हैं तो इस पोस्ट को लास्ट तक जरूर पढ़ें
दोस्तों आपके जानकारी के लिए बता दूँ कि संस्कृत में ऐसे बहुत सारे श्लोक है जिसे पढ़ने के बाद हम लोगो को बहुत कुछ सीखने को मिलता है इस वेबसाइट पर आपको बहुत सारे संस्कृत श्लोक अर्थ सहित पढ़ने को मिल जाऐगा तो आइये सबसे पहले जीवन पर संस्कृत श्लोक (sanskrit shlok on life) पढ़ते हैं
जीवन पर संस्कृत श्लोक - ( Jivan Par Sanskrit Shlok )
दोस्तों नीचे हमने 10 से भी ज्यादा जीवन पर संस्कृत श्लोक दिऐ है अगर आपको Sanskrit Shlok पढ़ना पसंद है तो आप नीचे दिए गए सभी संस्कृत श्लोक को ध्यान से पढ़े
( 1 ) अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥
अर्थ:
बुद्धिमान लोग यह जानते हैं कि अपने ही लोग ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता ही मेरा परिवार है। वे उदारचरित्र वाले लोग हैं, जो सबको सम्मान देते हैं और अनुशासित रहते हैं॥
इस श्लोक में समाज के सदस्यों के बीच एकता और समरसता की भावना व्यक्त की गई है। यह संस्कृत श्लोक जीवन के महत्वपूर्ण सिद्धांतों को सार्थकता के साथ प्रस्तुत करता है।
( 2 ) न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥
अर्थ:
इस संसार में ज्ञान से पवित्र कुछ भी नहीं होता है। वह स्वयं योग सिद्ध पुरुष ही समय के साथ अपने आप में प्राप्त करता है॥
इस श्लोक में कहा गया है कि ज्ञान का प्राप्ति विशेष योग्यताओं और योगाभ्यास के माध्यम से होती है। यह उन्हें बताता है कि सच्चा ज्ञान सिर्फ पठन-पाठन के माध्यम से ही नहीं प्राप्त होता है, बल्कि आत्मज्ञान और आध्यात्मिक साधना के माध्यम से ही संभव होता है।
( 3 ) नास्ति बुद्धिमतां शत्रुः संसारे ज्ञानचिन्तने।
नास्ति शत्रुसमं कर्म योगे नैव चान्यथा॥
अर्थ:
ज्ञान की चिंतना करने वालों के लिए संसार में कोई शत्रु नहीं होता है। और योग के माध्यम से किया गया कर्म भी शत्रु के समान नहीं होता, वरन् वही कर्म उनकी आत्मा को उच्चता देता है॥
इस श्लोक में कहा गया है कि ज्ञान की चिंतना करने वालों के लिए संसार में कोई शत्रु नहीं होता है, क्योंकि उन्हें ज्ञान की प्राप्ति से जीवन के सभी कठिनाइयों का समाधान मिल जाता है। वे अपने कर्मों को योग मार्ग के माध्यम से निरन्तर परिष्कार करते हैं और उच्चता की ओर प्रगति करते हैं॥
( 4 ) उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
अर्थ:
मनोरथों से नहीं, बल्कि प्रयास के द्वारा ही कार्य सिद्ध होते हैं। जैसे कि सोते हुए सिंह के मुँह में मृग प्रविष्ट नहीं हो सकते हैं॥
इस श्लोक में कहा गया है कि मनोरथों या इच्छाओं से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। सफलता के लिए उद्यम, प्रयास और समर्पण की आवश्यकता होती है। यह शिक्षा देता है कि इच्छाओं को सच करने के लिए हमें प्रयत्नशील होना चाहिए और कार्य करने के लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिए॥
( 5 ) यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥
अर्थ:
जहाँ स्त्रियाँ पूज्य होती हैं, वहाँ देवताएं विराजमान होती हैं। और जहाँ स्त्रियाँ अनपूज्य होती हैं, वहाँ सभी क्रियाएँ व्यर्थ हो जाती हैं॥
इस श्लोक में बताया गया है कि जहाँ स्त्रियाँ मान्यता प्राप्त करती हैं और सम्मानित होती हैं, वहाँ भगवान की कृपा बनी रहती है। वहाँ कार्य सफल होते हैं और प्रगति होती है। वहाँ स्त्रियों को अनपूज्य और अनादरित करने वाले समाज में कार्य व्यर्थ हो जाते हैं और अनुपयुक्त होते हैं॥
( 6 ) आप्यायन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तेषां यत्र क्रियाः सिद्धाः तत्रा देवी नमोऽस्तु ते॥
अर्थ:
पहाड़, नदी और पृथ्वी के माध्यम से बहुत सारी क्रियाएँ प्राप्त होती हैं। उन स्थानों में, जहाँ ये क्रियाएँ सिद्ध होती हैं, हे देवी, वहाँ आपको नमस्कार है॥
इस श्लोक में बताया गया है कि पहाड़, नदी और पृथ्वी की महिमा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इनके माध्यम से ही हमारे जीवन की क्रियाएँ संचालित होती हैं और हम उनके आश्रय में जीते हैं। इसलिए, हम इन दिव्य तत्वों को सम्मान करना चाहिए और उनके समृद्धि के लिए देवी का नमस्कार करते हैं॥
( 7 ) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ:
तेरा अधिकार कर्म करने में ही है, फलों में कभी नहीं। मत तू कर्मफल के लिए हेतु बन, और न ही तेरा सङ्ग कर्मों में हो।
इस श्लोक में बताया गया है कि हमारा धर्म कर्म करना है, लेकिन हमें फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। कर्मफल के लिए हमें लालच नहीं करना चाहिए, क्योंकि हमारा धर्म सिर्फ कर्म में ही है। हमें कर्मों के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि हमें निःस्वार्थता के साथ कर्म करना चाहिए॥
( 8 ) अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च।
अद्वैतं परमं ज्ञानं ज्ञानं चैव तथैव च॥
अर्थ:
अहिंसा सर्वोपरि धर्म है और धर्म में हिंसा नहीं होती है। अद्वैत विचार परम ज्ञान है और ज्ञान में भेद-अभेद नहीं होता है॥
इस श्लोक में बताया गया है कि अहिंसा ही सबसे उच्च धर्म है, और धर्म के अंतर्गत हिंसा का स्थान नहीं होता। अद्वैत (एकत्व) भावना परम ज्ञान है, और ज्ञान में भेद-अभेद का अस्तित्व नहीं होता। यह शिक्षा देता है कि हमें अहिंसा का पालन करना चाहिए और सभी जीवों की एकता को समझना चाहिए॥
( 9 ) आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च।
अहिताय च परिपालयन्ति विद्वांसः॥
अर्थ:
ज्ञानी पुरुष अपने मोक्ष के लिए ही नहीं, बल्कि संसार की हित के लिए भी कार्य करते हैं।
इस श्लोक में बताया गया है कि ज्ञानी पुरुष सिर्फ अपने मोक्ष की प्राप्ति के लिए ही नहीं कार्य करते हैं, बल्कि वे संसार के हित के लिए भी कर्म करते हैं। वे अपने ज्ञान और साधना के माध्यम से संसार के सभी प्राणियों का कल्याण करने का प्रयास करते हैं॥
निष्कर्ष :
दोस्तों आज की इस पोस्ट में आपने जाना जीवन पर संस्कृत श्लोक (Sanskrit Shlok On Life) मै उम्मीद करता हूँ कि आपको jivan par sanskrit shlok पसंद आया होगा अगर आपको यह संस्कृत श्लोक पसंद आया तो इसे अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर शेयर जरूर करें अगर इससे संबंधित आपके मन में कोई सवाल है तो आप कमेंट जरूर करें
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